अब्बू यहीं जन्मे, औलादें यहीं पलीं, अब बुढ़ापे में अपना मुल्क छोड़ कहां जाऊं!'

देश की संसद (Indian Parliament) में नागरिकता संशोधन विधेयक (Citizenship Amendment Bill) को लेकर घमासान मचा हुआ है. इधर असम (Assam) में चंद महीने पहले एनआरसी (NRC) की फाइनल लिस्ट आने से वहां पहले से ही भूचाल आया हुआ है. लिस्ट के मुताबिक तकरीबन 19 लाख से ज्यादा लोग अवैध प्रवासी हैं. प्राइमरी स्कूल टीचर मतलेब अली भी इनमें से एक हैं. पढ़ें, मतलेब को.


साल 1968 की बात है. अब्बू की मौत हुई तब मैं मां की कोख में था. जन्मा तो मां को मेरे चेहरे में अब्बू की शक्ल दिखती. मेरी आंखें अब्बू की तरह मिचमिची थीं. कंधे जन्म से ही सतर-सीधे. गदबदा बच्चा था लेकिन कभी कंधे झुकाकर नहीं चला. घरभर खूब दुलारता. गांव वाले हरदम कंधे में उठाए घूमते रहते. अब्बू को देखा नहीं लेकिन उनकी इतनी बातें सुन चुका हूं कि दूसरे जन्म में कभी मुलाकात हुई तो मैं झट से उन्हें पहचान लूंगा.


बचपन खूब रईसी में बीता. खाने को दुनियाभर की चीजें भले न हों लेकिन भात, मछली या घी में तर दलिया मिल ही जाता. बच्चों की सालगिरह हो तो मां सुबह से ही रसोई में लग जाती. बतख मांस करी, जाक अरु भाजी और आखिर में कुछ न कुछ मीठा. रसोई में ही खाते और वहीं पसर जाते.


गांव की आबादी तब बहुत कम थी. घर से ज्यादा पेड़-पोखर होते. हम बच्चे दिनभर पेड़ों पर चढ़ते, पोखरों में डुबकियां लगाते. पोखरों से फूल निकालते. घने जंगलों के कोने-कूचों से मेरी वाकिफियत थी. पता ही नहीं था, कहां से जंगल शुरू होता है या फिर कहां पर गांव खत्म होता है.



हरे-भरे गांवों में बिताया गया बचपन नाम का ही हिस्सा बन जाता है. उसे वैसे ही याद करता हूं जैसे पूछा जाने पर तपाक से अपना नाम बताता हूं.


पढ़ाई-लिखाई में अच्छा निकला. कई और साथी बचपन में ही अटके रहे और मैंने नौकरी शुरू कर दी. प्राइमरी स्कूल के टीचर की. बच्चों को पढ़ाता हूं तो अपना बचपन शिद्दत से याद आता है. कामरूप जिले के छोटे से गांव का उससे भी छोटा प्राइमरी स्कूल. हर टीचर हर क्लास और सारे सब्जेक्ट पढ़ाता है. कोई दिक्कत नहीं होती. 20 साल से ज्यादा हुए. हर क्लास की हर किताब का हरेक पन्ना याद है लेकिन तब भी रोज रात में पढ़ता हूं. लेसन प्लान बनाता हूं और तब स्कूल पहुंचता हूं.


ये नियम किसी दिन नहीं टूटा, सिवाय हाल के दिनों के. लगभग 3 महीने पहले ही असम में एनआरसी की आखिरी सूची आई. इसमें लाखों लोगों का नाम नहीं था.


मतलेब भी उन्हीं कुछ लाखों में से हैं. इसके बाद से रुटीन में चलती उनकी जिंदगी एकदम से डगमगाई हुई है.


वे बताते हैं- लिस्ट आई तो यकीन करने में वक्त लगा. मैं, मेरे पिता, मां सब यहीं के रहनेवाले हैं. गांव के गली-कूचों और हर घर में कौन रहता है, किसकी रूह परवाज कर गई, किसकी शादी हुई, किसकी कितनी औलादें हैं- सब मेरे दिमाग के कैलेंडर में लिखा हुआ है.


जिले और आसपास के इलाकेवाले भी बखूबी पहचानते हैं. मामूली बात है लेकिन क्या ये भी यहीं का होने का सबूत नहीं कि गुजरो तो लोग पहचानते हैं, दुआ-सलाम करते हैं. दावतों में बुलाते हैं.


फिर कहां चूक हुई!


बांग्ला-हिंदी-उर्दू की घुली-मिली जबान बोलते हुए मतलेब बीच-बीच में हकलाने लगते हैं. सवाल रुक जाते हैं. थोड़ी देर बाद खुद ही वे कहते हैं- पिता की मौत के बाद गांवभर का बेटा बना रहा. सबने प्यार दिया. अब मेरी खुद की औलादें हैं. सरकारी मास्टर हूं लेकिन अचानक बाहरवाला हो गया हूं. जानता हूं कि सब ठीक है.


थोड़ी-बहुत कानूनी दौड़भाग होगी, फिर सब साफ हो जाएगा लेकिन इसकी मियाद नहीं पता. बाहर निकलता हूं तो लगता है कि वो लोग जिनके नाम आ चुके हैं, मुझे और मेरे परिवार को शक से देख रहे हैं.


गांव का माहौल बदल गया है. पहले लोग हंसी-मजाक, पढ़ाई-लिखाई, नौकरी, ब्याह, परिवार के जंजालों पर बात करते. अब जहां चार जने इकट्ठा होते हैं, वे एनआरसी की बात करते हैं. जिनके नाम नहीं आए, उनकी भागदौड़ पर बात होती है. कागज लेकर वापस कोर्ट जाना होगा.


कोर्ट यहां से 70 किलोमीटर दूर है. असम के बदलते माहौल में ये सब कितना खतरनाक है, ये यहां रहनेवाले ही समझ सकते हैं. 


गांव के कितने ही कम पढ़े-लिखे लोगों ने खुदकुशी पर आमादा है. उन्हें समझा-बुझाकर संभाल रहे हैं. हाल ही में पास ही रहने वाली एक औरत ने खुदकुशी कर ली. 60 के आसपास की उम्र वाली औरत. सारी जिंदगी यहीं बीती. कागजात पूरे भले न हों लेकिन सारी यादें यहीं हैं.


अनपढ़ औरत थी. लिस्ट में नाम नहीं आया. बस, मरने के लिए इतना काफी लगा.


बताते हुए मतलेब की आवाज में आंसुओं का खारापन सुनाई दे रहा है.


जमीन के कागज दिए. जो-जो मांगा, सब दिया. अब नाम नहीं है. स्कूल जाता हूं लेकिन पढ़ाने में जी नहीं लगता. स्वाद से असमिया खाना खाता था, अब पता ही होता कि थाली में क्या है. बच्चे भी सहमे रहते हैं. बीवी रात में खुसपुसाती है- हमारा क्या होगा! उसे तसल्ली देता हूं लेकिन मुझे खुद नहीं पता कि हमारा क्या होगा.


टीचर अब स्कूल की बजाए वकीलों और कोर्ट के इर्द-गिर्द घूमेगा. फिर जो हो!


Popular posts
रेवेन्यू टारगेट पूरा करने को परिवहन अफसरों की सरकारी लूट, हर वाहन का चालान करने के निर्देश
कोई ट्रेवल हिस्ट्रीनहीं, फिर भी 65 वर्षीय व्यक्ति के कोरोना संक्रमित होने से मचा हड़कंप , ईरान से लाई गई एक भारतीय महिला भी पॉजिटिव
वीडियो कॉलिंग और मोबाइल नंबर से मरीजाें को मिलेगी कंसल्टेंसी; यूटीबी आधार पर डॉक्टर, नर्सेज और लैब टेक्नीशियन की भर्ती
मध्य प्रदेश में लगातार दूसरे दिन मौत, अब तक 7 की जान गई; पंजाब, हरियाणा, गुजरात और राजस्थान में भी एक-एक मौत
47 हजार 205 मौतें: ब्रिटेन में 24 घंटे में 563 लोगों की जान गई; डब्ल्यूएचओ ने कहा- जल्द ही दुनियाभर में मौतों का आंकड़ा 50 हजार होगा
Image